सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मिल्लकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम् ।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये ।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलो भवेत् ।।
भारत की संस्कृति कर्म व पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर आधारित है। भारत में तीन देवों की आराधना विशेष रूप से की जाती है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश । सृष्टि के निर्माणकर्त्ता ब्रह्मा, पोषणकर्त्ता विष्णु तथा कल्याणकर्त्ता व संहारकर्त्ता महेश को माना गया है। शिव को देवों का देव भी कहा जाता है। भारत के विभिन्न भागों में स्वः प्रकट हुए बारह ज्योतिलिंग है, इनका प्राकट्य स्वयं है किसी के द्वारा कृत्रिम रूप से निर्मित नहीं है। इन ज्योतिलिंगों के दर्शन, पूजा, फल प्राप्ति का विवरण मैं आपकों बताने की चेष्टा कर रही हूँ- इन ज्योतिलिंगों को भोले शंकर का रूप माना जाता है।
सोमनाथ का पूजन करने से क्षय एवं कुष्टादि रोगों का नाश होता है। मल्लिकार्जुन के दर्शन करने से भी मनोवांछित फल प्राप्त होते है। मल्लिकार्जुन के दर्शन, पूजन से सभी कामनाओं की सिद्धि और अन्त में उत्तम गति की प्राप्ति होती है। ओंकारलिंग भक्तों को वांछित फल देने वाला है। नर-नारायण रुप के दारेश्वर दर्शन-पूजन करने से अमिष्ट फलदायक है । भीमाशंकर भक्तों के सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले है। विश्वेश्वर भक्ति व मुक्ति के प्रदाता हैं। काशी विश्वनाथ के पूजन व दर्शन से हम कर्म-बंधन से निवृत होकर मोक्ष के भागी बनते है। त्र्यम्बकेश्वर दर्शन समस्त कामनाओं को पूर्ण कर अन्त में मुक्ति प्रदान करने वाले है। बैद्यनाथ पूजन से रोग निवृति तथा सुख वृद्धि होती है। नागेश ज्योतिलिंग के दर्शन, पूजन से पाप नष्ट हो जाते है। परमेश्वर मुक्ति के प्रदाता है। वे भक्तों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले है। घुरमेश्वर के दर्शन पूजन से इह लौकिक सुखों की प्राप्ति एवं अन्त में सुखद मुक्ति की प्राप्ति होती है।
इन बारह ज्योतिलिंगो के रुप में साक्षात् भगवान् शंकर ही है। भक्तों के कल्याण के लिए ही उन्होंने यह रुप धारण किया है। स्वयं शिवजी ने ही चन्द्रमा के कष्ट निवारण के लिए सोमनाथ का, स्वामी कार्तिकेय के कारण के लिए मल्लिकार्जून का, रोगों के क्षय एवं मृत्यु भय से मुक्ति हेतु महाकालेश्वर का, विन्ध्याचल -वासियों के कल्याणार्थ औंकारेश्वर का, नर-नारायण को सुख देने के लिए केदारनाथ का, असुर भीम के वध के निर्मित भीम शंकर का, भैरव की स्थापना के लिए विश्वनाथ का, गौतम की अभिलाषा पूर्ति के लिए अम्बकेश्वर का, रावण के निमित बैद्यनाथ का, दारुक दैत्य के वध के लिए नागेश का, राम जी को विजयी बनाने के लिए रामेश्वर का, धुश्मा के पुत्र को बचाने तथा सुदेहा दानव के विनाश के लिए धुश्मेश्वर का रूप धारण किया एवं ज्योतिलिंग स्थापित हुए।
इन ज्योतिलिंगों की कथा भक्तिपूर्वक पढ़ने-सुनने से मनुष्यों के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और अन्त में उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पृथ्वी सहित यह सारा जगत लिंग मे प्रतिष्ठित होने के कारण लिंगमय है। सारा दृश्य जगत शिवजी की पूजा करता है अतः सारा त्रिलोक शंकरजी में व्याप्त है। भगवान शंकर सब तीर्थों तथा स्थलों में अनेक प्रकार के लिंग धारण करते है। लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही शंकर जी ने अपने लिंग की कल्पना की है जिसकी पूजा करके मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर सके।
यद्यपि पृथ्वी में विद्यामन लिंग असंख्य है । तदापि प्रधान ज्योतिलिंग द्वादश है- सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्री शैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, मध्य में ओंकारेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमाशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमती तट पर त्र्यम्बकेश्वर, चिंताभूमि में बैद्यनाथ, अयोध्या के दारुक वन में नागेश्वर, सेतुबंध में रामेश्वर और देव सरोवर में धुश्मेश्वर ।
प्रातःकाल उठकर उन द्वादश ज्योतिलिंग का स्मरण, वाचक करने से आवागमन के चक्र से मुक्ति मिल जाती है इन लिंगो
की पूजा से सभी दुःखों का नाश होता है। इन लिंगो पर चढ़ा नैवेद्य ग्रहण करने से सारे पाप क्षण में ही समाप्त हो जाते है ।
1.सोमनाथ
सोमनाथ प्रसिद्ध प्राचीन ज्योर्तिलिंग है। इस पवित्र तीर्थ का उल्लेख ऋग्वेद स्कद पुराण और महाभारत में भी मिलता है। देश के अन्य ग्यारह ज्योर्तिलिंग में से सोमनाथ ही ऐसा स्थान है जहां परम पवित्र ज्योतिलिंग स्थापित है। यह मन्दिर अनेक शताब्दियों से भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बना हुआ है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर 406 ईस्वी से यह मन्दिर विद्यमान है। मन्दिर 56 रत्नजडित खम्बों पर खड़ा है। मन्दिर के भीतर के कक्ष में शिवलिंग स्थापित है जिसकी ऊँचाई 7 फीट तथा घेरा तीन हाथ का है। शिवलिंग जमीन में दो हाथ गहरा गड़ा हुआ है। पूजन के अवसर पर यात्रियों तथा ब्राह्मणों को बुलाने के लिए दो सौ मन का टंकौरा लटका हुआ है। प्रतिवर्ष श्रावण की पूर्णिमा और शिवरात्री पर तथा सूर्यग्रहण के अवसरों पर यहाँ भारी मेला लगता है।
सोमेश्वर महादेव का महत्व
चन्द्रमा ने दक्ष की 27 पुत्रियों से विवाह करके एक मात्र रोहिणी में इतनी आसक्ति और इतना अनुराग दिखाया कि अन्य 26 अपने को उपेक्षित महसूस करने लगी। उन्होंने अपने पति से निराश होकर अपने पिता से शिकायत की तो पुत्रियों की वेदना से पीड़ित दक्ष ने अपने दामाद चन्द्रमा को दो बार समझाने का प्रयास किया, परन्तु विफल हो जाने पर उसने चन्द्रमा को “क्षयी” होने का शाप दे दिया।
देवता लोग चन्द्रमा की व्यथा से व्यथित होकर ब्रह्माजी के पास गये व उनसे शाप निवारण का उपाय पूछने लगे। ब्रह्माजी ने महामृत्युंजय मंत्र जाप से वृषभध्चय शंकर की उपासना करने का एकमात्र उपाय बताया। चन्द्रमा के छः माह शिव पूजा करने पर शंकर जी प्रकट हुए और चन्द्रमा को एक पक्ष में प्रतिदिन उसकी एक-एक कला नष्ट होने और दूसरे पक्ष में प्रतिदिन बढ़ने का वर दिया। देवताओं द्वारा प्रसन्न होकर उस क्षेत्र की महिमा बढ़ाने के लिए और चन्द्रमा (सोम) के यश के लिए सोमेश्वर नाम से शिवजी वहां अवस्थित हो गए। देवताओं ने उस स्थान पर सोमेश्वर कुण्ड की स्थापना की। इस कुण्ड में स्नान कर सोमेश्वर ज्योतिलिंग के दर्शन, पूजा से मन विकारों से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
2.मल्लिकार्जुन
यह ज्योतिलिंग भी शैल पर है। ये 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है। सती की ग्रीवा यहाँ गिरी थी यह स्थान आन्ध्रप्रदेश में है। श्री शैल पर घने जंगल है। इसकी यात्रा शिवरात्रि के अवसर पर की जाती है। फाल्गुन एकादशी से यात्री यहाँ आना आरम्भ कर लेते है। श्री शैल के शिखर पर वृक्ष नहीं है। एक ऊंची चार दीवारी है, जिस पर हाथी घोड़े बने है। इस परकोटे के चारों और द्वार है, द्वारों पर गोपुर बने है। मन्दिर के चारों ओर बावड़िया और दो छोटे सरोवर है। आस-पास छोटे-छोटे पन्द्रह-बीस शिव मन्दिर और भी है। मन्दिर के बाहर पीपल व पाकर का एक सम्मिलित वृक्ष है। श्री मल्लिकार्जुन मन्दिर के पीछे पार्वती देवी का मन्दिर है। यहाँ इनका नाम मल्लिकार्जुन देवी है। द्वार के सामने सभा मण्डप है उसमें नंदी की विशाल मुर्ति है। शिवरात्रि को यहाँ शिव पार्वती विवाहोत्सव होता है। यहाँ शिवजी का नाम अर्जुन और पार्वती का नाम मल्लिका है। दोनों नाम मिलाकर मल्लिकार्जुन होता है। श्री शैल के दर्शनों से पुनर्जन्म नहीं होता ।
यहाँ से लगभग 10 किलोमीटर दूर शिखेश्वर तथा हाटकेश्वर के मन्दिर भी है। 51 शक्तिपीठों में प्रसिद्ध भ्रमरांवा देवी का मन्दिर भी यही है एवं यहाँ अम्बा जी की भव्य मूर्ति भी स्थापित है ।
मल्लिकार्जुन महादेव का महत्व
कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करके कैलाश पर लौटे तो नारदजी से गणेश के विवाह का वृतांत सुन रुष्ट हो गए और माता-पिता के मना करने पर भी उन्हें प्रणाम कर क्रोंच पर्वत पर चले गए। पार्वती के दुःखी होने व समझाने पर भी धैर्य न धारण करने पर शंकर जी ने देवर्षियों को कुमार को समझाने के लिए भेजा, परन्तु वे निराश हो लौट आए। इस पर पुत्र वियोग से व्याकुल पार्वती के अनुरोध पर पार्वती के साथ शिवजी स्वयं वहां गए। परन्तु कार्तिकेय अपने माता-पिता का आगमन सुनकर क्रोंच पर्वत को छोड़कर तीन योजन और दूर चला गया। वहां पुत्र के न मिलने पर वात्सल्य से व्याकुल शिव-पार्वती ने उसकी खोज में अन्य पर्वतों पर जाने से पहले उन्होंने वहां अपनी ज्योति स्थापित कर दी। उसी दिन से मल्लिकार्जुन क्षेत्र के नाम से यह ज्योर्तिलिंग मल्लिकार्जुन महादेव कहलाया। ऐसी मान्यता है कि अमावस्या के दिन शिवजी और पुर्णिमा के दिन पार्वती जी आज भी यहाँ आते रहते है। इस ज्योतिलिंग के दर्शन से धन-धान्य की वृद्धि के साथ प्रतिष्ठा, आरोग्य और अन्य मनोरथों की प्राप्ति होती है।
3.महाकालेश्वर (उज्जैन)
यह मन्दिर एक झील के तट पर है इसके पांच तल्लों में से एक तल्ला भूमग्न है। यात्रीगण घाट पर स्नान करने के बाद महाकाल की पूजा को जाते है। वैसे तो भगवान शिवजी को जो सामग्री चढ़ाई जाती है वह निर्माल्य होती है। अर्थात् उनका पुनः प्रयोग करना वर्जित है, लेकिन यहाँ पर यह बात नहीं है। यहाँ न केवल बढ़ाया हुआ प्रसाद भी लिया जाता है। अपितु एक बार चढ़ाए बिल्व त्र भी पुनः धोकर प्रयोग किए जाते है। महाकाल के दर्शन से क्त की मुक्ति होती है और व्यक्ति की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है।
महाकालेश्वर महादेव का महत्व
अवन्ती वासी एक ब्राह्मण के शिवोपासक चार पुत्र थे । ब्रह्मा से वर प्राप्त दुष्ट दैत्यराज दूषण ने अवंती में जाकर वहां के निवासी वेदज्ञ ब्राह्मण की बड़ा कष्ट दिया, परन्तु शिवजी के ध्यान में लीन ब्राह्मण तनिक भी खिन्न नहीं हुए। दैत्यराज ने अपने चारों अनुचारी दैत्यों को नगरी घेर कर वैदिक धर्मानुष्ठान नहीं होने देने का आदेश दिया, दैत्य के उत्पात से पीड़ित प्रजा ब्राह्मणों के पास आई। बाह्मण प्रजा जनों को धीरज बंधाकर शिवजी की हुए। इसी समय ज्योंहि दूषण दैत्य अपनी सेना सहित उन ब्राह्मणों पर झपटा, त्योंहि पार्थिव मूर्ति के स्थान पर एक भयानक शब्द के साथ धरती फटी और वहां पर गड्ढ़ा हो गया। उसी गर्त में शिवजी एक विराट रूपधारी महाकाल के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने उस दुष्ट दैत्य को ब्राह्मणों के निकट न आने का कहा, परन्तु उस दुष्ट दैत्य ने शिवजी की आज्ञा न मानी। फलतः शिवजी में अपनी एक की हुँकार से उस दैत्य को भस्म कर दिया। शिवजी को इस रुप में प्रकट हुआ देखकर ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान शंकर की स्तुति, वन्दना की ।
महाकालेश्वर की महिमा अवर्णनीय है। उज्जैन नरेश चन्द्रसेन शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ पक्के शिवभक्त भी थे। उसके मित्र महेश्वर जी के गण, मणिभद्र से उसे एक सुन्दर चिंतामणि प्रदान की । चन्द्रसेन कण्ठ में उसे धारण करता तो इतना अधिक तेजस्व दिखता इससे देवताओं को भी ईर्ष्या होती थी। कुछ राजाओं ने, मांगने पर मणि देने से इन्कार करने पर, चंद्रसेन पर चढ़ाई कर दी। अपने को घिरा देख चंद्रसेन महाकाल की शरण में आ गया। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसकी रक्षा का उपाय किया। संयोगवश अपने बालक को गोद में लिए हुए एक ब्राह्मणी भ्रमण करती हुए महाकाल के समीप पहुँची तो वह विधवा हो गई। अबोध बालक ने महाकालेश्वर मंदिर में राजा को शिव पूजन करते देखा तो उसके मन में भी भक्ति भाव उत्पन्न हुआ। उसने एक रमणीय पत्थर को लाकर अपने सूने घर में स्थापित किया और उसे शिव रुप मान उसकी पूजा करने लगा। भक्ति में लीन बालक को भोजन की सुधि ही न रही।
अतः उसकी माता उसे बुलाने गई, परन्तु माता के बार बार बुलाने पर भी बालक ध्यानमग्न मौन बैठा रहा। इस पर उसकी शिव माया विमोहित माता ने शिवलिंग को दूर फेंककर उसकी पूजा नष्ट कर दी। माता के इस कृत्य पर दुःखी होकर वह बालक शिवजी का स्मरण करने लगा। शिवजी की कृपा होते देर न लगी, गोपी पुत्र द्वारा पूजित पाषाण रत्नजड़ित ज्योतिलिंग के रुप में परिवर्तित हो गया। शिवजी की स्तुति, वंदना कर उस रात जब बालक घर को गया तो उसने देखा कि उसकी कुटिया का स्थान से वह सुविशाल भवन ने ले लिया है। इस प्रकार शिवजी की कृपा बालक विपूल धन धान्य से समृद्ध होकर सुखी जीवन बिताने लगा। इधर विरोधी राजाओं ने जब चंद्रसेन के नगर पर हमला किया तो वे आपस में ही एक दूसरे से कहने लगे कि राजा चंद्रसेन तो शिवभक्त है और यह उज्जैयिनी महाकाल की नगरी है जिसे जीतना असम्भव है। यह विचार कर उन राजाओं ने चंद्रसेन से मित्रता कर ली और सबने मिलकर महाकाल की पूजा की।
उसी समय वहां हनुमान जी प्रकट हुए और उन्होंने राजाओं को बताया कि शिवजी के बिना मनुष्यों को गति देने वाला अन्य कोई नही है। शिवजी तो बिना मंत्रों से की गई पूजा से भी प्रसन्न हो जाते है गोपीपुत्र का उदाहरण तुम्हारे सामने ही है। इसके पश्चात् हनुमान जी चंद्रसेन को स्नेह और कृपा पूर्ण दृष्टि से देखकर वही अर्न्तध्यान हो गए। जीवन पर्यन्त महाकालेश्वर की सेवा करके गोपी पुत्र और राजा चंद्रसेन दोनो ही सुख भोगकर अंत मे मोक्ष को प्राप्त हुए। महाकाल के मन्दिर का पुनः निर्माण विक्रमादित्य ने करवाया। यहाँ शिव को मानव भस्म से पूजा जाता है।
4.ओंकारेश्वर
यह मध्यप्रदेश का मनोरम तीर्थ है। एकादशी, अमावस्या और पूर्णिमा को यहाँ आस-पास से अनेकों व्यक्ति आते है। वर्ष में एक बार कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ विशाल मेला लगता है। यहाँ का शिव मन्दिर बहुत पुराना है। कुछ घुमाव पार करके अन्य देवताओं के दर्शन करते हुए गर्भगृह तक पहुचाँ जाता है। यही ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग के दर्शन होते है। प्राकृतिक रुप में धरातल से कुछ ऊपर उठे हुए अनगढ़े काले पत्थर का गोलाकार स्वरुप है। इसके पीछे की ओर सफेद पत्थर से बनी पार्वती की एक मूर्ति अलग रखी हुई है।
इस ज्योर्तिलिंग के बारे में कहा जाता है कि एक समय पर माधात ने यहाँ घोर तप किया। फलस्वरूप महादेवजी ने इस रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए। तभी से अटूट पूजा की प्रथा चली आ रही है। यात्री अपनी अभिलाषा पूरी करने के बाद मूर्ति के सामने आत्म-निवेदन करते है। शंकर को अर्पित नैवेद्य ग्रहण नहीं करते है। ओंकारेश्वर प्रणव रुप है अतः विल्वपत्र के अलावा तुलसी दल भी अर्पित किया जाता है। कहते है कि यहाँ अभिषेक किया गया जल सीधा नर्मदा मे चला जाता है।
ओंकारेश्वर महोदव का महत्व
एक बार नारदजी ने गोकर्ण तीर्थ में जाकर गोकर्ण नामक शिवजी की पूजा की और पुनः विन्ध्या पर्वत पर जाकर वहां भी श्रद्धापूर्वक शिवजी का पूजन किया। इस पर गर्वोन्मत विन्ध्या नारदजी के समक्ष उपस्थित हो अपने को सर्वश्रेष्ठ बतलाने लगा। नारद जी ने उसे कहा कि सुमेरु के समक्ष तुम्हारी कोई गणना नहीं क्योंकि उसकी तो देवताओं में गणना है। यह सुनकर विन्ध्या सुमेरु से भी उच्च पद पाने के लिए शंकर जी के शरणागत होकर औंकार नामक शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करने लगा। विन्ध्या के कठोर तप से प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए और उससे वर मांगने का अनुरोध करने लगे। विन्ध्या ने शिवजी से अपनी बुद्धि से मनोवांछित कार्यों को सिद्ध कर सकने का वर मांगा। इस पर शिवजी सोचने लगे कि यह तो दूसरों के लिए दुःखद वर की इच्छा करता है अब ऐसा कुछ करना चाहिए कि अशुभ वरदान दूसरों के लिए सुखद हो जाये। यह विचार कर शिवजी ने अपनी स्थिति की । वे औंकार और प्रणव नामों से सर्वदा के लिए वहां स्थिर हो गए। यह ज्योर्तिलिंग भक्तों के लिए अभिष्टदायक भक्ति तथा मुक्तिदायक है।
5.केदारनाथ
केदारनाथ द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक है महापुरुष धारी भगवान शंकर के विभिन्न अंग पांच स्थानों पर प्रतिष्ठित हुए जो पंचकदार माने जाते है। प्रथम केदारनाथ में पृष्ठ भाग, द्वितीय केदार मदमहेश्वर में नाभि, तृतीय केदार तुनाथ में, चतुर्थ रूद्रनाथ में, मुख पंचम केदार कल्पेश्वर में जटा तथा पशुपति नाथ (नेपाल) में सिर माना जाता है केदारनाथ में कोई निर्मित मूर्ति नहीं है । एक त्रिकोण रुप का पर्वत खण्ड है। जिसकी पूजा करते है । मन्दिर अत्यन्त प्राचीन किन्तु साधारण है। मन्दिर मे ऊषा, अनिरुद्ध पंच पांडव, श्रीकृष्ण तथा शिव पार्वती की मूर्तियां भी है। मन्दिर के बाहर परिक्रमा में अमृत कुण्ड, ईशान कुण्ड, हंस कुण्ड, रेतस कुण्ड, आदि तीर्थ है। सतयुग में उपमन्यु ने और द्वापर युग में पांडवों ने यहाँ आकर तपस्या की थी। इस मन्दिर का पुनः निर्माण आदि श्री शंकराचार्य ने करवाया था। मन्दिर लगभग 11,500 फीट की ऊंचाई पर हिमालय में है इसलिए यहाँ की यात्रा मई के प्रथम सप्ताह से शुरू होकर दीपावली तक समाप्त हो जाती है। 4 धाम यात्रा में एक धाम केदारनाथ को भी माना जाता है ।
केदारनाथ महादेव का महत्व
नर-नारायण जब बद्रिका ग्राम में जाकर पार्थिव पूजा करने लगे तो उससे पार्थिव शिवजी वहां प्रकट हो गए। कुछ समय पश्चात् एक दिन शिवजी ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा तो नर-नारायण लोक कल्याण की कामना से उनसे स्वयं अपने स्वरुप से पूजा के निर्मित इस स्थान पर सर्वदा स्थिर रहने की प्रार्थना की। उन दोनों की इस प्रार्थना पर हिमाश्रित केदार नामक स्थान पर साक्षात् महेश्वर ज्योर्ति स्वरुप हो स्वयं स्थिर हुए और वहां उनका नाम केदारनाथ पड़ा।
केदारनाथ के दर्शन मात्र से स्वप्न में भी दुःख प्राप्त नहीं होता। शंकर (केदारेश्वर) का पूजन कर पांडवो का सब दुःख जाता रहा। बद्रीनाथ का दर्शन पूजन आवागमन के बन्धन से मुक्ति दिलाता है। केदारेश्वर में दान करने वाले शिवजी के समीप जाकर उनके रुप हो जाते है ।
6.भीमाशंकर
भीमाशंकर मन्दिर बहुत पुराना है। शिवजी सहादि पर्वत पर अवस्थित है और वही से भीमा नाम की नदी निकलती है। मन्दिर के आस-पास मामूली बस्ती है। मन्दिर कलापूर्ण है
भीमेश्वर महादेव का महत्व
कुम्भकर्ण और कर्कटी से उत्पन्न भीम नाम एक बड़ा ही वीर राक्षस था, जो सब प्राणियों को दुःख देने वाला और धर्म का नाश करने वाला था ।
उसने अपनी माँ से जब अपने पिता और निवास आदि से सम्बन्ध में पूछा तो उसने बताया कि तेरा पिता लंका पति रावण का भाई कुम्भकर्ण है। जिसे रामचन्द्र जी ने मार डाला। मैंने अभी तक लंका नहीं देखी। तेरा पिता मुझे वही पर्वत पर मिला था और उसके द्वारा मैं तुझे उत्पन्न करके यही रह गई। मेरे पति के मारे जाने पर मायका ही मेरा एकमात्र सहारा रह गया। मेरे माता पिता पुष्कसी और कर्कट- जब अगस्त्य ऋषि को मारने गए तो उसने अपने तप के तीव्र प्रभाव से उन्हे भस्म कर दिया।
यह सब सुनकर वह हरि समेत सभी देवताओं से बदला लेने को आतुर हो उठा। उसने कठोर तप का आश्रय लिया और ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर अपार बलशाली होने का वर प्राप्त कर लिया। इस बल से उसने इन्द्र, विष्णु समेत सभी देवताओं का जीतकर अपने अधीन कर लिया।
इसके उपरान्त उसने शिवजी के महान भक्त कामरुपेश्वर का सर्वस्व हरण करके उसे जेल में डाल दिया। कामरूपेश्वर जेल में भी विधिपूर्वक और नियमित रुप से शिव पूजन करता रहा और उनकी पत्नी भी शिव आराधना में लगी रही।
इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता को साथ लेकर भगवान शंकर की सेवा में उपस्थित होकर उस दुष्ट दैत्य से परित्राण के लिए प्रार्थना करने लगे। शिवजी ने देवों को आश्वासन देकर उन्हें विदा किया ।
भीम को किसी ने कह दिया कि कामरुपेश्वर तो उसके मारण का अनुष्ठान कर रहा है। इस पर वह जेल में राजा के पास पहुँच कर उससे उनकी पूजादि से सम्बन्ध में पूछने लगा। राजा द्वारा शिव आराधना के सम्बन्ध में कुछ भी न बताने पर भीम ने तलवार से पार्थिव लिंग पर प्रहार किया। उसका खड़ग वहाँ तक पहुँचा भी नहीं था कि शिवजी वहाँ प्रकट हो गए। फिर धनुष, बाण, तलवार, परशु, परिधि और त्रिशुल आदि में दोनों में भयंकर युद्ध हुआ अन्ततः वहाँ आए नारद जी के अनुरोध पर शिवजी ने फूंक मारकर उस दुष्ट भीम को भस्म कर दिया और इस प्रकार देवों को कष्ट विमुक्त किया। इसके पश्चात् वहाँ उपस्थित देवताओं और मुनियों ने शिवजी से वहां पर निवास करने की प्रार्थना की और शिवजी लोक कल्याण की दृष्टि से वहाँ भीम शंकर नामक ज्योर्तिलिंग अवस्थित हुआ ।
7.वाराणसी (काशी)
ये शिव के बारह ज्योर्तिलिंगों में से है। वैसे भी काशी का तीर्थ के रुप में महत्वपूर्ण स्थान है यहाँ नए पुराने अनेक मन्दिर है विश्वनाथ मन्दिर का महत्व सर्वाधिक है। विश्वनाथ के मूल मन्दिर की परम्परा इतिहास में अज्ञात युग में चली आ रही है। लेकिन वर्तमान मन्दिर अधिक प्राचीन नहीं है। काशी की एक संकरी गली में प्रवेश करने पर इस प्राचीन मन्दिर में दर्शन होते है। भक्तों में ये विश्वास प्रचलित है कि यहाँ आए व्यक्ति की मनोकामना शिव शंकर पूर्ण करते है। इस मन्दिर की ध्वजा सोने से बनी है।
मुख्य प्राचीन मन्दिर के अतिरिक्त काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित नवीन विश्वनाथ का मन्दिर है । ये मन्दिर सफेद संगमरमर से बनवाया हुआ है इस मन्दिर की दुसरी मंजिल पर शिवलिंग स्थापित है जो भक्तों की अर्पित की गई पुष्प मालाओं और दीप शिखाओं से सजा रहता है।
इसके अलावा स्वामी करपात्रीजी महाराज का बनवाया गया विश्वनाथ मन्दिर भी भव्य और दर्शनीय है। ये मीर घाट पर है।
विश्वेश्वर महादेव का महत्व
नितीकार सेतन्य एवं सनातन ब्रह्म ने निर्गुण से सगुण शिवरुप धारण किया और पुनः शिव शक्ति रुप से पुरुष स्त्री भेद से दो रुप धारण किये। शक्ति-शिव को भगवान शिव ने आकाशवाणी से उत्तम सृष्टि के लिए तप करने का आदेश दिया। उन्होंने तप के लिए पंचकोशी नामक नगरी का निर्माण किया। उस नगरी में स्वयं विष्णु ने लम्बे समय तक शिव का ध्यान व तप किया। जिसके परिणाम स्वरूप वहाँ अनेक जल धारायें प्रकट हो गई। इस अद्भुत दृश्य को देखकर विस्मित होते हुए विष्णु जी ने ज्योंही सिर हिलाया त्योंही उनके कान में से एक मणि वहाँ गिर पड़ी, जिसके कारण उस स्थान का नाम मणिकर्णिका तीर्थ पड़ गया।
मणिकर्णिका स्थान के सम्पूर्ण जल को शिवजी ने अपने त्रिशुल पर धारण किया, एवं विष्णु जी को स्त्री सहित उस स्थान पर सोने का आदेश दिया। शिवजी की आज्ञा से उनके नाभि कमल से ब्रह्माजी की उत्पति हुई। ब्रह्माजी ने शिवजी की आज्ञा से इस अद्भूत सृष्टि की रचना की जिसमें पचास करोड़ योजन व विस्तृत चौदह लोक है। अपने ही कर्मों में बधें प्राणियों के उद्धार के विचार से शिवजी ने पंचकोशी नगरी को सम्पूर्ण लोकों से पृथक रखा। इसी नगरी में शिवजी ने अपने मुक्तिदायक ज्योर्तिलिंग को स्वयं स्थापित किया। शिवजी ने पुनः उसी काशी को अपने त्रिशुल से उतार कर मृत्यु लोक में स्थापित कर दिया जो ब्रह्मा का होने पर नष्ट नहीं होती पर प्रलय में शिवजी उसे पुनः अपने त्रिशूल पर धारण किये रहते है। काशी में अविमुक्तेश्वर लिंग सदा स्थित रहता है। कही भी गति न पाने वाले प्राणियों को वाराणसी, पुरी में गति प्राप्त हो जाती है। महा पुण्यदायक पंचकोशी नगरी कोटि-कोटि धारतम पातकों की नाशिका एवं संयुज्य नामक उत्तम मुक्ति की दायिका है। यही कारण है की ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा बनी इस नगरी में देवता भी मृत्यु की कामना करते है। भीतर से सत्वगुणी और बाहर से तमोगुणी रुद्र की प्रार्थना पर पार्वती सहित विश्वनाथ भगवान शंकर ने इस नगरी को अपना स्थाई निवास बनाया ।
काशी नगरी मोक्ष की प्रकाशित और ज्ञानदात्री नगरी है। यहाँ के निवासी किसी भी तीर्थादि की यात्रा किए बिना ही मुक्ति के भागी हो जाते है इस काशी में मृत्यु प्राप्त करने वाले को अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं। शुभ तथा अशुभ प्रकार के मनुष्य का जन्म होता है। काशी नगरी में दोनों को निश्चित ही मुक्ती मिलती है।
कर्मकाण्ड के बन्धन में डालने वाले कर्म तीन प्रकार के
कहे गये है-
(1) सक्ति – पूर्वजन्म में किए गए शुभ-अशुभ कर्म वाले एकत्रित रुप में ।
(2) क्रियामाण– वर्तमान जन्म में किए जा रहे शुभ – अशुभ कर्म ।
(3) प्रारिब्ध- शरीर के फलस्वरूप भोगें जाने वाले कर्म ।
प्रारिब्ध कर्म का नाश एकमात्र भोग से और सचित तथा क्रिषमाण का विनाश पूजन आदि उपाय से होता है। काशी में जाकर गंगास्नान और विश्वनाथ के दर्शन पूजन से संचित तथा क्रियामणि कर्मों का निश्चिय रुप से नाश हो जाता है। सत्य तो यह है कि काशी में प्राण त्याग करने पर पुनः जन्म नहीं होता। इस प्रकार विश्वनाथ की काशी की महिमा अपरम्पार है।
8.त्रयम्बकेश्वर
ज्योर्तिलिंग महाराष्ट्र के नासिक जिले में है। नासिक रोड़ स्टेशन से 11 किलोमीटर नासिक पंचवटी है। (वहाँ सीताजी का हरण हुआ था) पंचवटी से 30 किलोमीटर त्र्यम्बकेश्वर महादेव का स्थान है। मुख्य मन्दिर के भीतर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे शिवलिंग है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों देवों के प्रतीक कहे जाते है मन्दिर के पीछे अमृतकुण्ड है।
त्रयम्बकेश्वर महादेव का महत्व
अहिल्या के पति गौतम दक्षिण ब्रह्मा पर्वत पर तप करते थे। वहाँ एक समय सौ वर्षों तक पानी न बरसने से पृथ्वी की आभा जाती रही । जीवों के प्राणश्रत जल के अभाव में वहाँ के निवासी मुनि तथा पशु-पक्षी आदि उस स्थान का छोडकर भाग गये। ऐसी घोर अनावृष्टि को देखकर गौतम जी ने छः मास तक प्रायोयात द्वारा मांगलिक तप किया। जिससे प्रसन्न होकर प्रकट हुए वरुण से उन्होंने जल का वरदान माँगा। वरुणदेव के कहने पर गौतम ने हाथ पर गहरा गड्ढा खोदा । जिसमें वरुण जी की दिव्य शक्ति से जल भर आया। वरुणजी ने कहाँ कि तुम्हारे पुण्य प्रताप से यह गड्ढा अक्षय जल वाला तीर्थ होगा, तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा और यज्ञ, दान, तप, हवन, श्राद्ध और देवपूजा करने वाले को विपुल फल देने वाला होगा। उस जल को पाकर वहाँ के ऋषियों का बड़ा सुख हुआ और सुखा हरियाली से परिवर्तित हो गया अब ऋषियों ने यज्ञ के लिए वांछित ब्रीहिका उत्पादन आरम्भ किया ।
एक बार गौतम के शिष्य उस गड्ढे से जल लेने गए तो उसी समय वहाँ अन्य ऋषियों की पत्नियां भी जल लेने आ पहुँची और पहले जल लेने की हठ करने लगी । गौतम के शिष्य गौतम की पत्नी को बुला लाए और उसने हस्तक्षेप करके शिष्यों को ही पहले जल लेने की व्यवस्था की। ऋषि पत्नियों ने इसे अपना अपमान समझा और नमक-मिर्च लगाकर अपने पतियों को भड़काया । उन ऋषियों ने गौतम से इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए गणेशजी का तप किया। गणेशजी ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा। इस पर ऋषियों ने गौतम की अनिष्टमाना करते हूए उसे वहाँ से अपमानित करके निकालने की शक्ति देने का वर माँगा। गणेशजी ने परोपकारी महात्मा गौतम-जिन्होंने जल लाकर उन ऋषियों का कष्ट दूर किया था के प्रति दुर्भावना ना रखने का ही अनुरोध किया, परन्तु ऋषियों के हठ पकड़नें पर गणेशजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और साथ ही उन्हें परोपकारी महात्मा गौतम को कष्ट देने के दुष्परिणाम भुगतने के लिए प्रस्तुत रहने की चेतावनी भी दी।
एक दिन गौतम जी जग ब्रीहि लेने गए तो एक दुबली पतली गाय खड़ी थी। गौतम जी ने ज्योंही लकड़ी गाय हटाने के लिए मारी त्योंही गाय वहाँ गिरकर ढेर हो गई। बस फिर क्या था ऋषियों ने गौ हत्या का पाप गौतम के माथे पर मढ़कर उन्हें बहुत अपमानित किया और उस स्थान को दुःख ताप से बचाने के लिए वहां से चले जाने को कहा। गौतम जी बहुत दुखी हुए और आत्मग्लानि से वह स्थान छोड़कर चले गए।
गौतम जी ने गौहत्या के पाप की निवृति के लिए ऋषियों द्वारा बताए गए उपाय- अपने तप से गंगा जी को लाकर स्नान करना और कोटि संख्या में पार्थिव लिंगों को बनाकर शिवजी की पूजा करना अपनाया। शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे बताया कि वह तो शुद्ध करण वाला महात्मा है। उसके साथ अन्याय हुआ है अन्यथा उसके कोई पाप नहीं किया है। शिवजी ने गौतम से वर माँगने को कहा तो गौतम ने शिवजी से उसे गंगा देकर ससार का उपकार करने का वर माँगा। शिवजी ने गंगाजी का तत्व रुप अविशिष्ट जल मुनि को प्रदान किया। गौतम ने प्राप्त गंगा से अपने को गौ हत्या के पाप से मुक्त करने की प्रार्थना की। गंगाजी ने गौतम को पवित्र करने के उपरान्त स्वर्ग चले जाने का निश्चय प्रकट किया, परन्तु शिवजी के कलयुग पर्यन्त उसे धरती तल परही रहने का आदेश दिया तो गंगा ने उनसे प्रार्थना की कि फिर आप भी पार्वती सहित पृथ्वी तल पर निवास करें। संसार के उपकारार्थ शिवजी ने यह स्वीकार कर लिया ।
गंगाजी ने शिवजी से पूछा कि उसकी महत्ता का संसार को कैसे पता चलेगा। तब ऋषियों ने कहा कि जब तक बृहस्पपति सिंह राशि पर स्थित रहेगें, तब तक हम सब यहाँ तुम्हारें तट पर निवास करेंगे और नित्य तीनों काज तुम में स्नान कर शिवजी का दर्शन करते रहेगें। इससे हमारे पाप छूट जायेंगे। यह सुनकर गंगाजी और शिवजी वहाँ अवस्थित हुए। गंगा गोमती नाम के प्रसिद्ध और लिंग त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ।
गंगा जी का प्रथम प्रवाह गुलर की शाखा जैसा था। इस स्थान का नाम गंगा द्वार पड़ा और इसमें सर्वप्रथम गौतम जी ने ही स्नान किया। जब अन्य ऋषि मुनि स्नान के लिए आये तो गंगा अदृश्य हो गई। गौतम ने गंगा जी से बहुत विनती की, परन्तु उसने कृतघ्न ऋषियों को दर्शन देना स्वीकार न किया। इस पर गौतम ने पुनः प्रार्थना की तो गंगा ने दण्ड के रूप में इस पर्वत की सौ बार परिक्रमा करने पर ही ऋषियों को दर्शन देना स्वीकार किया । ऋषियों ने वैसा ही किया और अपने अपराध के लिए गौतम से क्षमा प्रार्थना की, इसके उपरान्त ही उन्हें गंगा का दर्शन और स्थान सुलभ हुआ ।
प्राचीन ग्रन्थों में ऐसा भी मिलता है कि नाराज गौतम जी ने उन ऋषि मुनियों को शाप दिया । जिससे वे नाराज होकर अन्य स्थान पर जाकर रहने लगे और शिव भक्ति से रहित हो गए । उनके पुत्र-पौत्रादि भी शिव भक्ति से रहित होकर दुष्ट व दानव बन गए। पुनः इसी स्थान पर गंगा जी में स्नान कर त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिलिंग की आराधना करने से ही उनका उद्धार हुआ ।
9.श्री बैद्यनाथ
बैद्यनाथ धाम भी बारह ज्योर्तिलिंग और 51 शक्तिपीठों में से है, सती का हृदय यहाँ पर गिरा था। अनेको व्यक्ति सांसारिक कामनाओं से यहाँ आते है बैद्यनाथ मन्दिर में प्रवेश करते है । श्री बैद्यनाथ शिवलिंग रावण द्वारा कैलाश से लाया गया था। लिंग मूर्ति ऊंचाई में बहुत छोटी है आधार पीठ से उसका उभार कम ही है।
बैद्यनाथ मन्दिर के घेरे में 21 मन्दिर और है जिनमें गौरी मन्दिर मुख्य है यही यहाँ का शक्तिपीठ है। इसमें एक सिंहासन पर दुर्गाजी तथा त्रिपुर सुन्दरी की दो मूर्तियाँ है ।
बैद्यनाथ महादेव का महत्व
एक बार राक्षसपति रावण ने कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। शीत पात वर्षाग्रिन के कष्ट सहन करने पर भी जब शिवजी प्रसन्न न हुए तो रावण ने अपने सिर काट-काट कर शिवलिंग पर चढ़ाने आरम्भ कर दिए नौ सिर चढ़ा चुकने पर जब दसंवा सिर चढ़ाने को काटने लगा तो शिवजी प्रकट हो गये और उसके सिर का पूर्ववत् करके उससे वर मांगने को कहने लगे। इस पर रावण ने कहा कि मैं आपको अपनी लंका में ले जाना चाहता हूँ। तब शंकर बोले तुम मेरे लिंग को भक्ति सहित अपने घर को ले जाओं पर ध्यान रखना कि यदि तुम कहीं बीच में इस लिंग को धरती पर रख दोगें तो यह वही स्थिर हो जाएगा।
रावण शिवलिंग को लेकर अपने घर चला तो मार्ग में उसे लघुशंका लगी। उसने एक गोप को लिंग थमाया और स्वयं लघुशंका करने चल दिया । गोप लिंग के भार को सम्भाल न सका और उसने उसे धरती पर रख दिया। बस शिवजी वही स्थिर हो गए और उनका नाम बैद्यनाथ पड़ा। दुष्टात्मा रावण के पास शिवजी के निवास के समाचार से देवताओं को दुःख हुआ। उनके अनुरोध से नारदजी रावण के पास जाकर उसके तप की प्रशंसा करते हुए बोले- तुमने शिवजी पर विश्वास करने की भारी भूल की है। शिवजी के वचन को सत्य मानना गलत है। तुम उनके पास जाकर उनका अहित करके अपना कार्य सिद्धि करो। तुम वहाँ जाकर कैलाश को उखाड़ डालों। कैलाश उखाड़ने की सफलता ही तुम्हारी लक्ष्य व सिद्धि सूचक होगी। नारदजी की बातों में आकर रावण ने वैसा ही किया, जिससे रुष्ट होकर शिवजी ने रावण को शाप दे दिया कि तेरी भुजाओं के अंहकार का दमन करने वाली शक्ति शीघ्र ही उत्पन होगी। नारदजी ने अपनी सफलता की सूचना देकर देवों को निशचित और प्रसन्न किया। इधर रावण प्रसन्न होकर घर आया और शिवजी की माया से विमोहित उस दुष्ट ने सारे जगत को अपने आधीन करने का निश्चय कर लिया। उसके अंहकार के विनाश के लिए ही भगवान को श्रीराम का अवतार धारण करना पड़ा।
10.नागेश्वर
यह तीर्थ द्वारिका जाते समय 25 किलोमीटर उत्तर पूर्व में पड़ता है। नागेश्वर ज्योर्तिलिंग के दर्शन का बड़ा महत्व है।
नागेश्वर महोदव का महत्व
पश्चिमी समुद्र तट पर सोलह योजन विस्तार वाले एक वन में दारुक और दारुका रहते थे। दारुक के उत्पाथों से त्रस्त ऋषि तथा अन्य लोग ओर्वमुनि की शरण में गये, देवताओं ने उन पर आक्रमण किया तो राक्षस चिन्तित हो उठे। पार्वती द्वारा प्राप्त शक्ति बल पर तारुका उस वन को आकाश मार्ग से उड़ाकर समुद्र के बीच ले आई और अब सभी राक्षस निश्चिन्त होकर वहाँ रहने लगे। वे नौका द्वारा समुद्र में जाकर ऋषि-मुनियों को पकड़कर बन्दी बनाने लगे। एक बार जिन लोगों को दुष्टों ने बन्दी बनाया, उनमें एक शिव भक्त सुप्रिय नामक वैश्य था। वह बिना-शिव पूजन किए अन्न जल ग्रहण नहीं करता था। उसने जेल में भी भगवान शिव की आराधना व पूजन प्रारम्भ कर दिया।
जेल के रक्षकों ने जब अपने स्वामी का सूचना दी तो उसने अपने सेवक को उसकी हत्या का आदेश दिया, इस पर सुप्रिय भगवान शंकर की प्रार्थना करने लगा। भगवान शंकर ने प्रकट होकर क्षण मात्र में ही राक्षसों को मार डाला तथा उस वन को चारों वर्णों के लोगों के विश्वास के लिए खोल दिया। इधर दारुका को पार्वती ने वर दे रखा था। इसके फलस्वरुप देवी ने उसे अन्त में राक्षसी सृष्टि होने ओर द्वारिका की शासिका बनाने की बात युग के कही, जिसे शिव ने स्वीकार कर लिया। फिर वहाँ शिवजी और पार्वती स्थिर हो गये और उनके ज्योर्तिलिंग का नाम नागेश्वर पड़ा तथा पार्वती नागेश्वरी कहलाई ।
11.रामेश्वर महादेव
ये चारों धाम में से एक धाम और बारह शिवलिंगों से प्रसिद्ध स्थान है। मद्रास के रामानंद जिले में दक्षिण सीमा के अन्त मे ये रामेश्वर द्वीप है। 31 मील लम्बा और सात मील चौड़ा ये द्वीप पुराणों में धमादन पर्वत के नाम से वर्णित है। श्रीराम के नाम पर इसका नाम रामेश्वर हुआ। रामेश्वर मन्दिर द्वीप के पूर्वी तट पर है। इसके भवन बडें है और ऊंची दीवारों से घिरे है। ये पूरा मन्दिर पूर्व से पश्चिम तक 865 फीट और उत्तर से दक्षिण 657 फीट के क्षेत्र में फैला है। उत्तर, दक्षिण और पूर्व के तीन गोपुर है। पश्चिम का गोपुर 79 फीट ऊंचा है। आनतरतम प्रकोष्ठ में भगवान रामेश्वर स्थापित है साथ ही उनकी शक्ति पर्वनत्रत वदिनी अम्मा विश्वनाथ स्वामी और उनकी शक्ति विशालाक्षी अम्मा भी है। एक गरुड स्तम्भ है जो सोने के पत्रों उत्तर, दक्षिण और पूर्व के तीन गोपुर है। पश्चिम का गोपुर में मढ़ा हुआ है।
रामेश्वर महादेव का महत्व
सीता की खोज में श्री रामजी की सुग्रीव से मित्रता हुई और उसके विशेष दूत श्री हनुमानजी की सहायता से सीता का पता चला। पैके श्रीराम रावण अभिमान करने के उद्देश्य से वानर सेना को संगठित कर दक्षिण के सारे समुद्र तट पर पहुंचे और उसे पार करने की • चिन्ता करने लगे। शिव भक्त राम जी को चिन्तित देख लक्ष्मण तथा सुग्रीवादि ने समझाया, परन्तु शिवजी द्वारा प्राप्त बल वाले रावण के सम्बन्ध में वे निश्चित न हुए। इस बीच उन्हें प्यास लगी और उन्होंने जल मांगा परन्तु ज्योंही वे जल पीने लगे त्योंही उन्हें करने की इच्छा जाग उठी और उन्होंने पार्थिव लिंग बनाकर षोडशोपचार से विधिवत् शिवजी की आराधना की ।
श्रीराम जी ने बड़ी ही आर्तवाणी से श्रद्धापूर्वक शिवजी से प्रार्थना की और उनका उच्च स्वर से जय-जयकार करते हुए नृत्य तथा गल्लनाद (मुंह से आँगड़ बम-बम शब्द निकालना) किया तो शिवजी प्रसन्न हो श्रीरामजी के समक्ष प्रकट हो गए और उनसे वर माँगने को कहने लगे ।
राम ने प्रकट हुए महेश्वर की बहुत की प्रेमपूर्वक अर्चना -वन्दना की और उनसे कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप संसार को पवित्र करने और दूसरों के उपकार के लिए आप यहाँ निवास कीजिए। शिवजी ने “एवमस्तु” कहकर रामेश्वर नाम से अपनी स्थिति की और शिवलिंग होकर रामेश्वर नाम से पृथ्वी पर अवस्थित हुए ।
शिवजी की कृपा से ही श्रीराम जी रावण आदि राक्षसों को मारकर विजयी हुए। रामेश्वर महादेव का जो व्यक्ति दर्शन पूजन करता है रामेश्वर शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाता है, वह जीवन हो जाता है तथा अन्त में केवल मोक्ष प्राप्त करता है
12.घुश्मेश्वर महादेव
भारत की सुप्रसिद्ध अजन्ता एलोरा की गुफाओं के समीप धुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग है। इसे घृणेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। यह भव्य मन्दिर है। यहाँ समीप ही सरोवर है । यह अत्यन्त प्राचीन स्थान है। कुछ व्यक्ति एलोरा के कैलाश मन्दिर को धुश्मेश्वर का प्राचीन स्थान मानते है ।
धुश्मेश्वर महादेव का महत्त्व
दक्षिण दिशा स्थित देव पर्वत पर अपनी सुन्दर पत्नी सुद्रेहा सहित भारद्वाज गोत्र वाला सुधर्मा नामक वेदज्ञ ब्राह्मण रहता था सुद्रेहा के यहाँ कोई सन्तान नहीं हुई, इस कारण वह अत्यन्त दुःखी रहती थी। वह आये दिन अपने पड़ोसियों के व्यंग्य बाणों तथा अपने अपमान आदि की बात कहती, परन्तु तत्वा सुधर्मा इधर ध्यान नहीं देते थे ।
अन्तः एक दिन आत्मघात की धमकी देकर सुद्रेहा ने अपने पति को दूसरे विवाह के लिए राजी कर ही लिया। अपनी बहन धुश्मा बुलाकर उसका अपने पति से विवाह करा दिया और किसी प्रकार को की ईष्या न करने को दोनों का आश्वासन दिया। समय बीतने पर धुश्मा पुत्रवती हुई और यथा समय उस पुत्र का विवाह हुआ। इधर यद्यपि सुधर्मा और धुश्मा दोनों ही सुद्रेहा का बहुत आदर करते थे। परन्तु समय के साथ सुद्रेहा का मन ईर्ष्या व द्वेष में इतना परिवर्तित और सुदृढ़ हो गया था कि उसने धुश्मा के सोते हुए युवा बालक की हत्या करके शव को समीपस्थ तालाब में फेंक दिया।
प्रातःकाल घर में कोहराम मच गया। धुश्मा पर तो दुःख का तुषारापात हो गया, परन्तु व्याकुल होते की भांति पूजन न छोड़ा। वह तालाब में जाकर एक सौ शिवलिंग हूए भी धुश्मा ने नित्य बनाकर उन्हें पूजने लगी। ज्योंही विसर्जन करके वह घर की और मुड़ी त्योंही उसे अपना पुत्र तालाब पर खड़ा मिला और शिवजी ने खुश होकर सुद्रेहा के पाप की पोल खोल दी और मारने के लिये वे उद्यत हो गए। धुश्मा ने हाथ जोड़कर शिवजी से विनती की और उनसे सुद्रेहा का अपराध क्षमा करने के लिए कहा। इसके अतिरिक्त धुश्मा ने अत्यन्त विनीत शब्दों में शिवजी से विनती कि की यदि वे उस पर प्रसन्न है तो संसार की रक्षा के लिये वे सदा यही निवास करें
शिवजी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और धुश्मेश नाम से अपने शुभ ज्योर्तिलिंग द्वारा वहां स्थिर हो गये ।
ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तो धर्म अर्थ काम त्रिवर्ग के ही दाता है। मोक्ष के प्रदाता तो एकमात्र ज्ञान स्वरुप अविनाशी, साक्षी, ज्ञानगम्य तथा स्वयं अद्वैत महादेव जी ही है। वे ही चारों- सालोथ्य, सारुप्य तथा सात्रिध्य प्रकार की मुक्ति से प्रदाता है। शिवजी की सृष्टि के आदि में र्निगुण परमात्मा से सगुण शिवजी बनकर अविर्भूत के समान आकर भेद को छोड़कर और कोई भेद नहीं ।
शिवजी ही ब्रह्मा, विष्णु आदि देवों के सहायक है। सभी देवों का लय शिवजी में ही होता है और आत्मकल्याण इच्छुक सभी मनुष्य तथा देवता उसी शिव का ही भजन करते है। शिवजी ही काल में महाकाल तथा सभी कार्यों के आदि कारण और नियन्त है । ये शिवजी ही सृष्टि रचना करते है और उसमें लिप्त नहीं होते । जिस प्रकार जल में अग्नि तेल की परछाई का मान होता है, परन्तु वह वास्तव में उसमे प्रविष्ट नहीं है।
इसी प्रकार शिव सृष्टि में लिप्त नहीं है, जैसे अग्नि प्रत्येक काष्ठ देख सकती है वैसे ही सृष्टि के अणु-प्रत्याणु में व्याप्त शिवजी को साधक ही देख पाता है। जिस प्रकार एक ही सुर्य जल में अनेक दिखाई देता है, भ्रान्ति नाश होते ही अभयबुद्धि हो जाती है अंहकार से मुक्त निर्मल और बुद्धिमान जीव शिव के प्रसाद से शिवत्व को प्राप्त होता है।
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