रुद्राक्ष की उत्पत्ति
पूर्वकाल में एक दिन लीलावंश भगवान शिव ने जब अपने दोनों नेत्र खोले, तो नेत्रों से कुछ जल की बूंदें गिरी और उनसे ही रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हुआ। शिव पुराण में रुद्राक्ष की उत्पत्ति के विषय में निम्न वर्णन मिलता है
हिमालय पर स्वतंत्र रूप से विचरने वाले महाबली असुरराज त्रिपुरासुर का वध करने के लिए भगवान् शिव को त्रिपुरासुर के साथ वर्षों तक भीषण युद्ध करना पड़ा था। उस युद्ध में बहुत अधिक व्यस्त रहने के कारण शिव की आंख से तीव्र शूल होने लगा था। क्रोध व लालिमा के कारण उनके नेत्रों से अश्रुस्त्राव हुआ। तब ब्रह्मा ने उस अश्रुस्त्राव को एक वृक्ष के रूप में उत्पन्न होने का आदेश दिया। उस वृक्ष पर जो फल आये, वो ही “रुद्राक्ष” कहे गये।
रुद्राक्ष चारों जातियों के भेद से भूतल पर प्रगट हुए। ब्रह्माण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र को क्रमशः श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण वर्ण के रुद्राक्ष धारण करने से शिव-पार्वती की प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।
- आंवले के बराबर रुद्राक्ष श्रेष्ठ होते हैं।
- बेर के बराबर रुद्राक्ष मध्यम होता है।
- चने के बराबर रुद्राक्ष निम्न कोटि का होता है।
आंवले के बराबर रुद्राक्ष समस्त अरिष्टों का नाश करने वाला होता है। बेर के बराबर रुद्राक्ष लोक में उत्तम फलदायक व सुख-सौभाग्य को बढ़ाने वाला होता है। गुंजाफलों के समान बहुत छोटा रुद्राक्ष संपूर्ण मनोरथ सिद्धि देने वाला होता है, अर्थात् रुद्राक्ष जितना छोटा होता है, उतना ही अधिक फल प्रदान करने वाला होता है।
एक छोटा रुद्राक्ष बड़े रुद्राक्ष से दस गुणा अधिक फल देने वाला होता है। ऐसा माना और कहा जाता है। यह पापनाशक बताए गये हैं। समान आकार-प्रकार वाले, चिकने, मजबूत, स्थूल, कंटकयुक्त (ऊभरे हुए छोटे छोटे दानों वाले) सुन्दर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थ तथा भोग व मोक्ष को देने वाले हैं ।
अपने आप डोरा पिरोने का जिसमें छिद्र बना हो, वह उत्तम रुद्राक्ष है; मनुष्य द्वारा बनाए छिद्रयुक्त रुद्राक्ष मध्यम श्रेणी के होते हैं। रुद्राक्ष के धारण करने से महापातकों का सर्वनाश होता है।
रुद्राक्ष की विशेषता
तंत्र-साधना के परिप्रेक्ष्य में रुद्राक्ष को अति प्रभावी और उपयोगी माना गया है। तंत्र विशेषज्ञों के अनुसार रुद्राक्ष ही एक ऐसा फल है, जो सदैव शुभ फल ही देता है। रुद्राक्ष का उपयोग सभी कर सकते हैं। रुद्राक्ष जहां एक तरफ भाग्य को उज्जवल बनाता है, वहीं अशांत आत्माओं से भी बचाता है, तथा स्वस्थ और निरोग भी रखता हैं। यह मस्तिष्क और हृदय को शक्ति देता है। रक्तस्त्रोत व स्नायु को स्निग्धता प्रदान करता है। रुद्राक्ष की माला पहने हुए साधु-सन्यासी, पुरोहित पंडित और बाबा प्रायः दिख पड़ते हैं। रूपरेखा से शोभन और आकर्षक न होने पर भी इसका इतना व्यापक प्रयोग इसकी उपयोगिता और प्रभावशीलता का प्रमाण है। रुद्राक्ष धारण करने से जीवन में शान्ति और आत्मशक्ति प्राप्त होती है। शुद्ध रुद्राक्ष लघुत्ता से गरिमा और प्रतिष्ठा की ओर ले जाता है।
रुद्राक्ष के प्राप्ति स्थान तथा उसकी उपयोगिता
रुद्राक्ष वास्तव में एक फल का बीज है, किन्तु अपने अद्भुत गुणों के कारण आध्यात्मिक जगत् में ही नहीं बल्कि अब तो भौतिक विज्ञानियों ने चिकित्सा जगत् में भी परम पवित्र और पूजनीय स्वीकार किया गया है। इसकी कई जातियां होती हैं और विश्व के अनेक भागों में प्राप्त होता है। मुख्य रूप से यह पूर्वी द्वीप समूह-जावा, सुमात्रा, वाली, इंडोनेशिया और मलाया में उत्पन्न होता है। नेपाल भी इसका उत्पादक देश है।
अल्प संख्या में भारत में भी इसके वृक्ष पाए जाते हैं मैसूर, देहरादून, महाराष्ट्र, आसाम और हिमालय की तराई के क्षेत्र में ! मुख्यतः व्यापारिक प्रयोग के लिए स्थानीय लोग इसके कच्चे फलों को तोड़कर उनसे गुठली निकाल लेते हैं और बेचते हैं। किन्तु साधना की दृष्टि से पके फल की गुठली ही श्रेष्ठ और उत्तम होती है।
रुद्राक्ष च शिवाक्षं च सर्वाक्ष भूतनाशनम् ।
पावन नीलकण्ठाक्ष राक्षं च शिवप्रियम् ।।
रुद्राक्ष भगवान् शिव की सर्वाधिक प्रिय वस्तुओं में से एक है। यह उन्हें इतना रूचिकर लगा कि वो इसके दाने-दाने में अपनी सूक्ष्म-शक्ति के रूप में निवास करने लगे। यही कारण है कि रुद्राक्ष के दाने को लोग शिवलिंग की भांति ही पूजते हैं।
रुद्राक्ष धारण करने वाला व्यक्ति भौतिक अथवा दैविक सभी आपदाओं से सुरक्षित रहता है। इसके दानों से बनी में माला सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। रुद्राक्ष के दाने कंठ या बाहु धारण किये जाते हैं। आज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी स्वीकार किया है कि रुद्राक्ष के दाने में एक प्रकार की अद्भुत चुंबकीय और विद्युत शक्ति निहित रहती है, जो इसके धारक को अनेक प्रकार से प्रभावित करती है।
ज्वर (बुखार), उत्तेजना, अनिद्रा, रक्तचाप, मिर्गी, वातज-व्याधियां, दुःस्वप्न, भूत-प्रेतादि का उपद्रव, उदर-विकार, उमत्तता और चर्म रोगों के शमन में रुद्राक्ष का चमत्कारी प्रभाव देखकर एलोपैथी के चिकित्सक भी रोगियों को इसके धारण करने की सलाह देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने भी इसके वस्तुगत प्रभाव को स्वीकार कर लिया है।
रुद्राक्ष का प्रयोग चाहें जिस रूप में किया जाए, वो अपना चमत्कारी प्रभाव किसी न किसी अंश में दिखता अवश्य है।
रुद्राक्ष के भेद
वनस्पति जगत् के रुद्राक्ष के फल अनेक आकार-प्रकार के होते. हैं। ये काली मिर्च के दाने से लेकर आंवले के आकार तक विभिन्न रूपों में प्राप्त होते हैं। किन्तु ये सहज सुलभ नहीं होते। बहुत छोटे और बहुत बड़े दाने कठिनता से ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः मध्यम आकार के दाने, जो झरबेरी के बेर के बराबर होते हैं, अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।
नेपाल का रुद्राक्ष साइज में बड़ा होता है। भारतीय रुद्राक्ष सभी आकारों में, किन्तु बहुत थोड़ी मात्रा में उत्पन्न होता है । पूर्वी द्वीप-समूह इसका सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र है और वहां इसके छोटे दाने बहुतायात से पाए जाते हैं।
पन्द्रह से बीस वर्षों के अंदर विश्व में भारतीय अध्यात्म के साथ-साथ रुद्राक्ष का महत्व व प्रयोग बढ़ता जा रहा है। वहां इसकी बहुत मांग है। वहां के संपन्न, आस्थावान् नागरिक इसकी माला बड़े सम्मान और विश्वास के साथ धारण करते हैं। दिनों दिन बढ़ती जा रही लोकप्रियता के कारण आज सच्चे और कीमती रुद्राक्षों की भी तस्करी होने लगी है।
यह तथ्य इस बात को प्रमाणित करता है कि अवश्य अलौकिक और अद्भुत ही इस खुरदरे और कुरूप दानें में गुण समाये हैं।
आकार के अलावा रुद्राक्ष के दोनों में एक भेद ओर भी होता है। वो भेद सूक्ष्म होते हुए भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। उसी भेद के आधार पर रुद्राक्ष की प्रभावशीलता विश्लेषित की जाती है। रुद्राक्ष का स्तर निर्धारण और मूल्यांकन उसके इस भेद पर ही निर्भर रहता है। वो भेद है-“रुद्राक्ष के मुख”
प्रत्येक दाने पर नींबू जैसी फांके और उनकी विभाजक रेखाएं प्राकृतिक रूप में बनी होती हैं। यह धारियां (रेखाएं) ही मुख कहलाती हैं। इन्हीं के आधार पर उस दाने का श्रेणीकरण, मूल्यांकन किया जाता है।
ये रुद्राक्ष (दाने) एकमुखी से लेकर इक्कीसमुखी तक के होते हैं। किन्तु एकमुखी से चौदहमुखी तक के दाने तो उपलब्ध हो जाते हैं, पर पन्द्रहमुखी से लेकर इक्कीसमुखी तक के दाने अत्यंत दुर्लभ होते हैं और प्रायः देखने में ही नही आते। यों तो एकमुखी दाना भी दुर्लभ ही माना जाता है और आसानी से नहीं मिलता है दोमुखी से सातमुखी दानें भी मिल जाते हैं, लेकिन आठमुखी से लेकर चौदहमुखी दाने भी सहज ही सुलभ नहीं होते। उपर्युक्त रुद्राक्षों में सातमुखी दाने ही अधिक मिलते हैं। यह दाना दुर्बलता की कोटि में आता है, अतः इसकी कीमत भी बाजार में बहुत अधिक नहीं आंकी जाती है।
रुद्राक्ष की परख
वो ही रुद्राक्ष प्रयोज्य और प्रभावी होता है, जिसका दाना समूचा हो, कहीं से टूटा-फुटा, दरका या विकृत न हो। उस पर धारियां स्पष्ट हों, तथा कांटे उभरे हुए हो। दाना पानी में डूब जाए, तांबे के दो टुकड़ों के बीच में रखने से घूमने लगे। घना छिद्रयुक्त न हो, चमकीला और वजनदार हो, ऐसा दाना ही सर्वोत्तम और श्रेष्ठ माना जाता है।
असली रुद्राक्ष की पहचान के कुछ तरीके बताए जाते हैं जो इस प्रकार हैं।
- रुद्राक्ष की पहचान के लिए रुद्राक्ष को कुछ घंटे के लिए पानी में उबालें यदि रुद्राक्ष का रंग न निकले या उस पर किसी प्रकार का कोई असर न हो, तो वह असली होगा।
- रुद्राक्ष को काटने पर यदि उसके भीतर उतने ही घेर दिखाई दें जितने की बाहर हैं तो यह असली रुद्राक्ष होगा। यह परीक्षण सही माना जाता है, किंतु इसका नकारात्मक पहलू यह है कि रुद्राक्ष नष्ट हो जाता है।
- रुद्राक्ष की पहचान के लिए उसे किसी नुकिली वस्तु द्वारा कुरेदें यदि उसमें से रेशा निकले तो समझें की रुद्राक्ष असली है।
- दो असली रुद्राक्षों की उपरी सतह यानि के पठार समान नहीं होती किंतु नकली रुद्राक्ष के पठार समान होते हैं।
- एक अन्य उपाय है कि रुद्राक्ष को पानी में डालें अगर यह डूब जाए, तो असली होगा। यदि नहीं डूबता तो नकली लेकिन यह जांच उपयोगी नहीं मानी जाती है क्योंकि रुद्राक्ष के डूबने या तैरने की क्षमता उसके घनत्व एवं कच्चे या पके होने पर निर्भर करती है और रुद्राक्ष मेटल या किसी अन्य भारी चीज से भी बना रुद्राक्ष भी पानी में डूब जाता है।
रुद्राक्ष द्वारा रोगोपचार
दिमागी कमजोरी- कोई भी मुख वाला रुद्राक्ष लेकर, जलाकर उसकी भस्म बना ले और हरे आंवले के रस में घोलकर सिर के बालों की जड़ों में लगाएं। कुछ ही दिनों में दिमागी कमजोरी दूर हो जाएगी।
यदि कम उम्र में ही बाल सफेद होने लगे हों, तो इस प्रक्रिया से बाल भी काले हो जाते हैं और काले ही निकलने लगते हैं।
मानसिक रोग- जो स्त्री पुरुष मानसिक रोग से ग्रस्त हों, उन्हें चारमुखी रुद्राक्ष को गाय के दूध में उबालकर पीना चाहिए। इससे कुछ ही दिनों में मन और मस्तिष्क के सभी विकार दूर हो जाते हैं। इसके प्रयोग करते रहने से स्मरण शक्ति का भी विकास होता हैं।
जोड़ों का दर्द- यदि जोड़ों का दर्द और पीड़ा गठिया के कारण हो, तो पांचमुखी दाने को सिल पर घिसकर, बकरी के दूध के साथ सेवन करने से कुछ ही दिनों में चमत्कारी लाभ होता है और गठिया का दर्द पीड़ा दूर हो जाती है।
कैंसर- आंवलासार रुद्राक्ष समस्त प्रकार के कैंसरों को दूर कर देता है।
दाग धब्बे – रुद्राक्ष वट वृक्ष के पीले पत्ते, काली अगर, पठानी, चमेली का पंचांग लोध कूट और लाल चंदन ; सबको पानी के साथ पीसकर चेहरे पर लेप करें। कुछ ही दिनों में चेहरे के दाग धब्बे साफ हो जाएंगे।
बालों का न बढ़ना- रुद्राक्ष 1 भाग, तिल के फूल 4 भाग लेकर, चूर्ण बनाकर कपड़छान कर लें और धृत शहद के साथ मिलाकर सिर पर लेप करें, इससे बाल शीघ्र बढ़ने लगते हैं। दूसरी विधि में रुद्राक्ष, मुलहठी, मुनक्का और कमल, समान भाग लेकर कूट छान लें तथा गाय के दूध में मिलाकर उसमें तिल का तेल और गोघृत भी मिला लें। इसके लेप करने से बाल घने, चमकदार और सुंदर हो जाते हैं।
गंजापन – रुद्राक्ष के महीने चूर्ण को कटोरी के रस में मिलाकर सिर पर लगाएं। कुछ ही दिनों में गंजापन दूर हो जाता है। रुद्राक्ष के चूर्ण को परवल के रस में मिलाकर लगाने से भी गंजापन दूर हो जाता है।
झाइयां – रुद्राक्ष और मजीठ समान भाग लेकर उसका चूर्ण करें। फिर कपड़छान करने के बाद मक्खन में मिलाकर मुख पर लेप करें, इससे झाइयां दूर हो जाती हैं। अच्छा तो यही है कि रात में सोने से पूर्व लेप करें, लेकिन लेप करने से पहले चेहरे को हल्के गुनगुने पानी से अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए।
दुर्गन्ध- रुद्राक्ष, सफेद चंदन, खस और थोड़ा सा कपुर लेकर पीसें और चंदन के तेल में मिलाकर शरीर पर लगाएं (मले) । कुछ ही दिनों में शरीर की दुर्गन्ध दूर हो जाएगी।
वातज शोध- रुद्राक्ष, सोंठ, देवदारू, जटामासी, अरणी, रास्ना और बिजौरे की जड़, सबको एक समान लेकर पानी के साथ पीसें और लेप करें। वातज शोध में यह हितकर है।
पित्त दोष- रुद्राक्ष, मुलहठी, मूर्वा, खस, पदमाख, नरसल की जड़, नेत्रबाला, कमल और लाल चंदन, समान भाग लेकर पानी के साथ पीसें और लेप करें। इससे कुछ ही दिनों में पित्त दोष से उत्पन्न हुई शोध दूर हो जाती है।
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